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हरी सिंह नलवा
दोस्तों आपने एक फ़िल्मी गीत ज़रूर सुना होगा,
 "मेरे देश कि धरती सोना उगले उगले हीरे मोती"।
 "रंग हरा हरि सिंह नलवे से,
 रंग लाल है लाल बहादुर से,
 रंग बना बसंती भगतसिंह, रंग अमन का वीर जवाहर से"
 हम सभी शास्त्री जी, भगत सिंह और नेहरु जी के बारे में बहुत सी बातें जानते है लेकिन हरी सिंह नलवाका नाम बहुत ही कम लोगों ने सुना होगा| दोस्तों हरी सिंह वो योद्धा थे, जिनके डर से अफघानों ने सलवार और पठानी पहननी शुरू कर दी थी जिससे कि वे औरतें लगे और हरी सिंह उन्हें युद्ध में बक्श दे | अफघानों में उनके खौफ का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पठान युसुफजई महिलाएं अपने बच्चों को सुलाने के लिए कहती थी, “चुप सा, हरि राघले”, मतलब ये कि चुप हो जा वरना हरि सिंह आ जाएगा | कौन थे हरी सिंह नलवा, जिनके नाम का खौफ आज भी अफगानी पठानों में है -
हरी सिंह नलवा

जिनके नाम लेने पर भी अफगानी पठान और उनके बच्चे भी डर जाया करते थे। आज के वीडियो में हम जानेंगे सिख कौम के इस महान योद्धा और सेना नायक की कहानी।दोस्तों, 1791 में पंजाब के गुजरांवाला में सरदार गुरदयाल सिंह उप्पल और माता धरम कौर के घर – सरदार हरी सिंह नलवा का जन्म हुआ, वे अपने माता – पिता की इकलौती संतान थे। जब ये महज 7 साल के थे, इनके पिता का स्वर्गवास हो गया – जिसके बाद इनकी माता ने अकेले ही इनका पालन – पोषण किया |

१० वर्ष की उम्र में ही अमृत संस्कार कर, वे सच्चे सिख बन गए। जिस उम्र में बच्चो को खिलौनों का शौक होता है, उन्हें शस्त्रों का शौक था – उन्होंने शीघ्र ही मार्शल आर्ट्स, अस्त्र शास्त्र चलाना और घुड़सवारी सीख ली। १४ वर्ष की उम्र में – ये महाराजा रंजीत से मिले – इनकी ज़मीन पर किसी अन्य द्वारा किए गये कब्ज़े का विवाद खड़ा हुआ जिस वजह से ये महाराजा रणजीत सिंह के समक्ष प्रस्तुत हुए और बखूबी अपना पक्ष रखा।

दोनों पक्षों को सुनने के बाद महाराजा रणजीत सिंह ने इनके हक़ में फैसला सुनाया। इसके बाद इन्होने महाराज को बताया कि उनके दादा – परदादा ने सिख महाराजाओं की सेवा की है और अपना पराक्रम दिखा कर महाराजा रणजीत सिंह की सेना में शामिल हो गए। 1804 में एक दिन जब हरी सिंह जंगल से गुज़र रहे थे, तभी एक बाघ ने उन पर हमला कर दिया। उस बाघ ने उनके घोड़े को मार दिया था- उनके साथी बाघ से उन्हें बचने कि कोशिश कर रहे थे, लेकिन उन्होंने उन सब एक सुरक्षित दुरी पर रहने का आदेश दिया और अपने हाथो से बाघ का जबड़ा फाड़ दिया। बाघ वहीं मर गया, और तभी से इनका नाम बाघमार पड़ गया। जब ये खबर महाराजा रणजीत सिंह तक पहुंची. तो उन्होंने कहा,

“वाह मेरे राजा नल वाह.” नल से यहां अर्थ राजा नल से है, जिनका जिक्र महाभारत में नल दमयंती की कहानी में आता है | यहीं से हरि सिंह का नाम हरी सिंह नलवापड़ गया | इसके बाद महाराजा रणजीत सिंह ने महज़ १४ वर्ष की उम्र में ही उन्हें अपनी सेना की एक टुकड़ी की कमान सौंप दी | दोस्तों, ये वो दौर था जब अफघान लड़के अक्सर हिंदुस्तान पर हमला कर लूट पात मचाते थे , औरतों और बच्चों को उठा कर ले जाते और उन्हें गुलाम बनाने के लिए बेच दिया जाता था | उनके इस जघन्य अपराध के खिलाफ महाराजा रणजीत सिंह ने मोर्चा संभाला और इस लड़ाई में उनका सबसे भरोसेमंद हथियार बने हरी सिंह नलवा |

दोस्तों, १४ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने कसूर के युद्ध में अपनी वीरता और बहादुरी साबित कर दी थी | इसके बाद 1807 में इन्हे सिआलकोट जीतने का आदेश मिला, और महज़ १७ साल की उम्र में इन्होने सिआलकोट जीत कर महाराजा रंजीत सिंह को सौंप दिया। उस समय अटक का क़िला अफ़ग़ानों के कब्ज़े में था, और वहां से वे अक्सर पंजाब पर हमला किया करते थे – हरी सिंह नलवा, हुक्कम सिंह अटारीवाला, खालसा फ़तेह सिंह अहलूवालिया, बेहमाम सिंह मालिआवला ने महाराजा रंजित सिंह के दीवान मोखम चंद के नेतृत्व में अटक जीत लिया और अफ़ग़ानों को पीछे खदेड़ दिया।

इन्होने १८१४ – १८१५ में कश्मीर से मुस्लिम बादशाहों को बहार निकल फेंका, इस दौरान इन्होने कई गद्दारों को भी ख़त्म किया | १८१६ में इन्होने अपने साथियों के साथ मिलकर बैसाखी मनाने के बाद – महमूदकोट जीता, इस जीत की ख़ुशी महाराजा रंजीत सिंह ने कई तोपों की सलामी दे कर मनाई।मुल्तान की तरफ जाते हुए, रस्ते में दो क़िले पड़ते थे जिनपर अब भी अफ़ग़ानों और मुस्लिमों का कब्ज़ा था, हरी सिंह ने वे दोनों क़िले – खानगढ और मुज़्ज़फ़गढ़ जीत लिए,

मगर मुल्तान जीतने की कोशिश में हरी सिंह बुरी तरह घायल हो गए थे – उनके ऊपर आग का एक गोला आकर लगा जिससे वे बुरी तरह घायल हो गए – मगर इसके बाद एक भयंकर युद्ध के साथ मुल्तान भी जीत लिया गया। हरी सिंह नलवा कुछ ही महीनों में बिलकुल स्वस्थ हो गएऔर अगले अभियान क तरफ चल दिए। पेशावर में सिख दबदबा कायम रखने के लिए हरी सिंह को भेजा गया और वहां भी उन्होंने सिख कौम का झंडा फेहरा दिया। इनकी बहादुरी से खुश हो कर महाराजा रणजीत सिंह ने तिवाना मुखियाओं की दी हुई सभी भेंट और सम्पति इनको जागीर में दे दी। इनका वर्चस्व ही ऐसा था – वे अलौकिक सिख थे। कश्मीर को पंजाब में मिलाने का श्रेय इन्ही को जाता है। इन्हें कश्मीर का गवर्नर नियुक्त कर दिया गया ।

इन्होने 1819 में पाखली का युद्ध, 1821 में मांगल का युद्ध और 1822 में मानकर का युद्ध जीता, मानकार जीतने से पहले रस्ते में आने वाले १२ अन्य किले जीतकर, हरी सिंह नलवा ने सिख रियासत में मिला दिए थे। इन्होने अफगानी, अहमद शाह अब्दाली के वंशजों से १८२३ में नौशेरा छीनकर उन्हें वहां से भगा दिया – यहाँ नदी के दोनों किनारों पर युद्ध हुआ, हरी सिंह ने दोनों किनारों पर युद्ध जीता, इस युद्ध में प्रसिद्ध कमांडर अकाली फूला सिंह और गोरखा कमांडर बाल बहादुर ने भी इनका साथ दिया।

पाकिस्तान के खैबर पख्तूनवा क्षेत्र में हरी सिंह ने एक नया शहर बसाया जिसका नाम हरिपुर रखा, यहां से ९ मील दूर सिरिकोट किला जीतने के लिए हरी सिंह ने अपना अगला अभियान शुरू किया, लेकिन जानलेवा सर्दी और कम सेना होने के कारण उन्होंने कुछ समय इंतज़ार किया और महाराजा रंजीत सिंह को अर्जी भेजी कि अफ़ग़ानों की तुलना में सिख कम है , हर एक सिख के बदले १० अफ़ग़ान लड़के है – अर्जी मिलते ही महाराजा रणजीत सिंह की सेना सिरिकोट की तरफ रवाना हुई, इतनी बड़ी सेना को आता देख, अफ़ग़ान डर कर भाग गए और सिरिकोट पर भी सिख कौम का परचम लहराने लगा। अब हरी सिंह अफ़ग़ानों को और पीछे धकेलने लगे, वे अफ़ग़ानिस्तान में घुस चुके थे, १८२७ में साइडू में युद्ध हुआ

एक तरफ हरी सिंह नलवा की सिख सेना और दूसरी तरफ अफ़ग़ान – एक तरफ अल्लाह हु अकबर के नारे थे और दूसरी तरफ – बोले सो निहाल, सत श्री अकाल। सिख जीत गए और उन्होंने अफ़ग़ानों को ६ मील तक खदेड़ा। अगले कुछ सालों में उन्होंने पेशावर, जमरूद और पंजतार भी जीत लिए। और हिन्दुकुश के पहाड़ों को सुरक्षित कर लिया जहां से विदेशी आक्रांता अक्सर भारत पर हमला करते थे। इनका खौफ इतना हो चला था कि अफघानी योद्धा जनाना कपडे पहनने लगे थे जिससे हरी सिंह या उनके सैनिक उन्हें बक्श दें | १८३७ में महाराजा रंजीत सिंह के पौत्र, नौ निहाल सिंह की शादी थी – ब्रिटिश कमांडर को भी निमंत्रण था – अपनी सैन्य शक्ति दिखाने के लिए कई प्रांतों से महाराजा ने सेना वापस बुलाई | अफ़ग़ान शाशक दोस्त मोहम्मद खान ने इसे जमरूद के किले पर हमला करने के लिए अच्छा अवसर माना । वो अपने पांच बेटो की अगुवाई में एक बहुत बड़ी सेना लेकर जमरूद पहुंचा |

उधर पूरी सेना का लाहौर में होने पर, हरी सिंह नलवा ने जमरूद पर आता खतरा भांप लिया, महज़ ६०० सैनिकों, जो कि जमरूद के किले कि सुरक्षा में थे, उनकी रक्षा के लिए हरी सिंह कुछ लोगों के साथ पेशावर से रवाना हुए | उधर जमरूद में कुछ ही बचे सिख सैनिकों में और अफघानी सेना में भयानक युद्ध हुआ चल रहा था कि तभी अफगानी सैनिको में हडकंप मच गया, उन्होंने देखा कि हरी सिंह आ रहे है, अफगानी इधर उधर भागने लगे |

भले ही सिख संख्या में कम थे, मगर हरी सिंह नलवा का होना, अफगानी सेना में डर का माहौल बनाये हुआ था, उन्होंने २० से अभी अधिक लडाइओं में अफ़ग़ानों को हराया था, पर इस युद्ध में हरी सिंह नलवा घायल हो गए, काफी देर तक लड़ने के बाद जैसे तैसे उनको घेर लिया गया और वे घायल हो गये, उन्हें तुरंत किले के अंदर ले जाया गया | उन्होंने अपने सूबेदार को ये आदेश दिया की जब तक महाराजा रणजीत सिंह अपनी सेना लेकर नहीं आ जाते, उनकी मृत्यु की खबर किसी को न दी जाए।

अफ़ग़ान जानते थे कि हरी सिंह नलवा घायल है, लेकिन इतनी हिम्मत किसी भी अफगानी में नहीं थी कि वे क़िले पर हमला कर सकें। लगभग चार दिन तक अफगानी सेना किले के बाहर खड़ी रही, तब तक सिख सैनिकों की एक बड़ी टुकड़ी आ चुकी थी, और फिर उनके मृत शरीर को बाहर लाया गया। हरी सिंह नलवाकी आख़िरी इच्छा को ध्यान में रखते हुए कि उनकी राख को लाहौर में कुश्ती के उसी अखाड़े में मिला दिया गया जिसमें उन्होंने अपनी जिंदगी की पहली लड़ाई जीती थी।

दोस्तों, उनकी शूरवीरता, आक्रामक रणनीति और युद्ध क्षेत्र में अद्भुत अदम्य साहस की बदौलत अफ़ग़ान सैनिकों में हमेशा ही डर और दहशत बनी रही और उन्होंनने हिन्दुस्तान पर हमला नहीं किया | ये सिख समुदाय के सबसे भरोसेमंद कमांडर्स में से एक थे, ये कश्मीर, हज़रा और पेशावर के गवर्नर रहे और सामाजिक विकास के लिए कई कार्य करवाए। दोस्तों साल 2014 में ऑस्ट्रेलिया की एक पत्रिका, बिलेनियर ऑस्ट्रेलियंस ने इतिहास के दस सबसे महान विजेताओं की सूची जारी की और इस सूची में हरी सिंह नलवाका नाम सबसे ऊपर था | इस बात से आप समझ सकते है कि उनका वर्चस्व कैसा था | ऐसे महान योद्धा को हमारा शत शत नमन |हरी सिंह नलवा