बलराम बचपन से ही युद्ध कला में प्रशिक्षित एक प्रचंड योद्धा थे। वह शस्त्र चलाने में निपुण थे और उनकी शारीरिक शक्ति अद्वितीय थी। महाभारत में शायद ही कोई ऐसा योद्धा था जो उनके युद्ध कौशल का सामना कर सकता था। पर अपने कौशल के बावजूद उन्होंने महाभारत के युद्ध में भाग न लेने का फैसला किया। बहुत लोगों को आश्चर्य हुआ कि बलराम ने युद्ध में भाग नहीं लेने का फैसला क्यों किया, खासकर तब जब महाभारत के युद्ध में भगवान कृष्ण ने पांडवो के पक्ष में रहने का संकल्प लिया, जो युद्ध में धर्म ओर थे। हालाँकि, उनके इस फैसले के पीछे एक कहानी थी जो बहुत कम लोगों को पता है।
बलराम, शेष नाग के अवतार माने जाते है जो भगवान विष्णु के अनन्य भक्त है, जो त्रेता युग में श्री राम के छोटे भाई लक्ष्मण के रूप में अवतरित हुए और उन्होंने द्वापर युग में श्री कृष्णा के बड़े भाई के रूप में अवतार लिया। शेष जी के अवतार होने के कारण, वे अतुलित बल, बुद्धि, ज्ञान और धर्म के ज्ञाता थे और हर समय धर्म का पालन करने में विश्वास करते थे। वे जानते थे कि युद्ध से अपार विनाश ही होगा, और वह इस विनाश का न तो कारन बनना चाहते थे, न ही हिस्सा इसलिए उन्होंने युद्ध को टालने के भी कई प्रयास किये क्यूंकि अतीत में उन्होंने कई महाविनाशकारी युद्धों के कारण उत्पन्न हुई दुःख, दर्द और पीड़ा को उन्होंने कई बार नजदीक से देखा था और उसी तरह के एक और युद्ध में वे किसी भी तरह का योगदान नहीं देना चाहते थे।इसके अलावा, बलराम जान गए थे कि युद्ध अनिवार्य है, और नश्वर लोगों के मामलों में और अत्यधिक हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझते थे। वे जानते थे कि युद्ध का परिणाम पूर्व निर्धारित है और यह एक कल चक्र की एक महत्वपूर्ण एवं बड़ी योजना का हिस्सा है । वह प्रकृति के नियम और कर्म के चक्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे और एक तटस्थ पर्यवेक्षक बने रहना चाहते थे।
कई पौराणिक कथाओं का मानना है कि बलराम दोनों ही दलों के हितेशी थे, दोनों ही दलों को उन्होंने प्रशिक्षण तो दिया ही था साथ ही साथ उनके प्रति मन में स्नेह कि गहरी भावना थी। वे सभी भाइयों को आपसी मतभेद भूलकर साथ रहने कि प्रेरणा देते थे और उनको युद्ध कलाओ में प्रशिक्षण देने के साथ साथ उनसे एक अटूट बंधन सा विकसित हो गया था और बलराम जानते थे कि यदि उन्होंने युद्ध में भाग लिया तो उन्हें कौरवों और पांडवों में से किसी एक का पक्ष लेना होगा और अपने दूसरे प्रिय शिष्यों के विरुद्ध युद्ध करना होगा। वह उनसे लड़ने और उन्हें नुकसान पहुँचाने का विचार भी सहन नहीं कर सकते थे। उन्होंने कौरवों और पांडवों को बड़े होते देखा था, कौरवों की खामियों के बावजूद उनके साथ उनका विशेष बंधन था और पांडवों के धर्म प्रतिज्ञ होने पर उनसे गहरी आस्था थी।
वे किसी भी पक्ष को अपने द्वारा किसी तरह का हानि नहीं पहुंचाना चाहते थे इसलिए युद्ध से दूर ही रहने का निश्चय करते है और उनके इस निर्णय का सभी ने सम्मान किया और किसी ने भी उनका मन बदलने का दवाब नहीं डाला। कुछ कथाओं के अनुसार, महाभारत के युद्ध के समय बलराम सिर्फ एक तटस्थ पर्यवेक्षक बने किसी मूक कि भाँती किनारे खड़े होकर अपने ज्येष्ठ, पूजनीय, गुरु, पितामह, और स्नेही अनुजों की मृत्यु नहीं देख सकते थे इसलिए संपूर्ण भारतवर्ष में कई तीर्थ स्थलों में जाकर युद्ध के कारण उत्पन्न हुई पीड़ा, दुःख, दर्द के शीघ्र निवारण की प्रार्थना की। आखिरकार, युद्ध समाप्त हुआ और पांडव विजयी हुए। धर्म कि जीत पर बलराम प्रसन्न भी थे और प्रिय जनों की मृत्यु पर दुखी भी लेकिन काल चक्र की नियति को स्वीकार करते हुए युद्ध क्षेत्र से दूर ही रहे।
बलराम के युद्ध में भाग न लेने का निर्णय उनके चरित्र और धर्म के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता का प्रमाण था। वे जानते थे कि उनका बल, शक्ति और कौशल किसी भी युद्ध का परिणाम मोड़ सकते थे लेकिन फिर भी उन्होंने किसी भी धर्म और नियति के विरुद्ध न जाने का फैसला किया और अपने सिद्धांत पर अडिग खड़े रहे। मतलब अगर एक वाक्य में सबकुछ पिरोहा जाए तो ये कहना उचित होगा कि बलराम का महाभारत के युद्ध में भाग न लेने का निर्णय धर्म के प्रति उनकी प्रतिबद्धता, लौकिक योजना में उनके विश्वास, काल चक्र के सिद्धांत कि उनकी समझ और उनके छात्रों के प्रति प्रेम पर आधारित था। यह एक ऐसा निर्णय था जो कहीं से भी सरल नहीं था बल्कि यह उनके निर्मल चरित्र और अडिग सिद्धांतों का एक परिचायक था।