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मराठा साम्राज्य का वो अजेय राजा जिसको अंतिम संस्कार भी नसीब न हुआ

3 April 1680 हिंदुस्तान के इतिहास की वो काली तारिख थी जब पूरे भारत पर मराठा साम्राज्य का बढ़ता हुआ सूरज अचानक से ढल गया जब पहले छत्रपति शिवजी महारज मराठा साम्राज्य के सिंघासन को खाली छोड़ इस दुनिया से चले गए

मराठा सिंघासन को खाली देख मौका परस्त मुग़ल सल्तनत के काले बादल दिल्ली से  मराठा साम्राज्य की तरफ बढ़ चले थे, चारो तरफ अँधेरा ही अँधेरा नज़र आ रहा था, तभी इस अँधेरे को चीरती हुई एक रौशनी नज़र आती है, ये रौशनी थी इसी परिवार के चिराग और छत्रपति शिवजी महारज के सबसे बड़े बेटे शम्भाजी राजे भोसले

संभाजी का जीवन परिचय तारिख थी  14 मई, 1657 जब  महाराष्ट्र के सह्याद्रि पर्वतों के बीच बने पुरन्दर के किले में भोसले वंश की किलकारी गूंजी थी। मराठा साम्राज्य के लिए तो ये किलकारी बड़ी खुशियां लायी थी , छत्रपति शिवाजी महाराज और रानी सईबाई के पहले बेटे संभाजी राजे ने जन्म लिया थ।

इनके जन्म के कुछ समय पश्चात ही इनकी माता सईबाई का देहांत हो गया था। इसके बाद इनका लालन-पालन दादी जीजाबाई ने किया। 3 साल की छोटी सी उम्र में ही अपनी दादी से तलवार और घोड़े की मांग करके पिता के साथ युद्ध में जाने की ज़िद्द करने वाले संभाजी ने साहित्य में भी मराठी और संस्कृत सहित कई अन्य भाषाओं में प्रवीणता हासिल की थी देखा जाये तो शस्त्र और शास्त्र दोनों में ही संभाजी जैसा योद्धा मराठा साम्राज्य में कोई नही था।

प्रकांड विद्वान भी थे संभाजी महाराजछत्रपति संभाजी महाराज को संस्कृत भाषा की भी अच्छी जानकारी थी। संभाजी राजे ने चौदह साल की उम्र में बुद्धभूषण लिखा था। बुद्धभूषण में तीन भागों में काव्यलंकार, शास्त्र, संगीत, पुराण और धनुर्विद्या के अध्ययन का जिक्र है। एक विदेशी लेखक अब्बे कारे (Barthélemy Carré) ने युद्ध कला में संभाजी महाराज की कुशलता की प्रशंसा की है। इससे संभाजी महाराज की विशाल बुद्धि, ज्ञान, अनेक भाषाओं में निपुणता और धार्मिक भक्ति का अनुमान लगाया जा सकता है।

ब्राह्मण कवि कलश उनके सलाहकार बनेभारत के इतिहास में जितने वीर हुए है उतने ही गद्दार या भीतरघाती भी रहे है ऐसा कहा जाता है कि संभा जी की सौतेली मां अपने बेटे राजाराम को राजा बनाना चाहती थीं। इसलिए वह शिवाजी महारज  के मन में संभाजी के खिलाफ शक और जलन की सोच पैदा करती रहती थी। इससे कई बार शिवाजी और संभाजी के बीच अविश्वास की स्थिति बनी रहती थी। एक बार शिवाजी ने उन्हें किसी कारणवश कारावास में डलवा दिया था जहां से वह भाग निकलने में कामयाब हुए थे। 

और भाग कर दिल्ली में मुगलों  की शरण ली, लेकिन मुगलों का हिन्दुओं के प्रति क्रूर स्वभाव को देखकर वह पुनः अपने राज लौट आए। जब वह औरंगजेब के शाही महल  से भाग रहे थे तो उस समय उनकी मुलाकात उज्जैन के ब्राह्मण कवि कलश से हुई, जो आगे चलकर उनके सलाहकार बने।

महान योद्धा और रणनीति कौशल में सानी नहींसंभाजी के  गुरुओं केशवभट और उमाजी पंडित ने संभाजी राजे को अच्छी शिक्षा दी थी। संभाजी महाराज ने बचपन से ही राजनीति रणनीति और गुरिल्ला युद्धनीति सीख ली थी। भारत से मुग़लों को बहार खदेड़ने के लिए संभाजी जानते थे की उन्हें छापामार युद्ध नीति ही अपनानी पड़ेगीक्योकि मैदानों में लड़ने वाली मुगलया फ़ौज पहाड़ो में लड़ने में प्रशिक्षित नहीं थी, नहीं उन्हें पहाड़ों जंगलो की कोई जानकारी थी और न ही लड़ने का कोई अनुभव।  

120 युद्ध लड़े किसी में असफल नहीं हुएछत्रपति संभाजी महाराज ने अपने पराक्रम के बल पर बहुत कम समय में मराठा साम्राज्य का विस्तार के साथ साथ  बचाव नहीं  किया।  संभाजी महाराज ने अकेले ही मुगल साम्राज्य का मुकाबला किया, जो मराठा साम्राज्य के आकार से  15 गुना ज़्यादा थी।  

संभाजी राजे ने इतने युद्ध किये की सदियों से से चली आरही मुग़ल सल्तनत की इस्लामिक सल्तनते सहियोगी रही आदिलशाही और क़ुतुबशाही सल्तनत दक्षिण भारत के नक़्शे से मिल गयी, mysore के कट्टर हिन्दू राजा  चिक्का देव राय के औरंगज़ेब के साथ संधि करने पर जब संभाजी ने अपने सरदारों को चिक्का देव राय को समझाने के लिए पर्तव भेजा तो उसने ३ मराठाओं सरदारों के सर श्री रंगपटनम के दरवाज़े पर टांग दिए थे।

जिसके बदले में संभाजी ने mysore को 90% से ज़्यादा ख़तम कर दिया था और हरे हुए चिक्का देव राइ को मराठा साम्राज्य को बहुत बड़ी रकम हुंडी के तौर पर देनी पड़ती थी। संभाजी महाराज ने सिर्फ मैदान और पहाड़ में ही लड़ाईयां नहीं की बल्कि उस समय की समुद्र की अकेली सबसे बड़ी ताकत कही जाने वाली  पुर्तगाली नौसेना  को कमर भी तोड़ के रख दी थी, गोवा के पुर्तगालियों को लूटकर वह के पैरिश चर्च तक आग लगा दी थी

संभाजी ने अपने कार्यकाल में कुल 120 युद्ध लड़े। इन 120 लड़ाइयों में से किसी में भी वह असफल नहीं हुए। छत्रपति संभाजी महाराज ऐसी उपलब्धि हासिल करने वाले एकमात्र योद्धा थे। कहा जाता है कि उस वक्त संभाजी का मुकाबला करने वाला कोई योद्धा नहीं था। छत्रपति शिवाजी के बाद संभाजी महाराज ने हंबीर राव मोहिते को कमांडर-इन-चीफ (सेनापति) नियुक्त किया।

अपनों की गद्दारी और अंत – 1689 की शुरुआत में छत्रपति संभाजी राजे और उनके ने अपने बहनोई गानोजी शिर्के से प्रसाशन को लेकर उनकी अनबन होती रहती थी ये आपसी कलेश इतना बढ़ गया था की गानोजी शिर्के को वेतनदारी देने से मना कर दिया था जिससे नाराज़ होकर शिर्के ने संभाजी राजे को पकड़वाने के लिए औरंगजेब के सरदार मुकर्रबखान से हाथ मिला लिय। 


1689 में एक दिन संभाजी और कवि कलश अपने घोड़े पर संगमेश्वर मे घूम रहे थे वह सेना को कम रखा गया था क्योंकि कोई सोच भी नहीं सकता था की मुग़ल यहाँ आने की हिम्मत भी कर सकते है लेकिन गानोजी शिर्के ने गद्दारी करदी ओर मुकर्रबखान को संगमेश्वर मे घुसने का खुफिया रास्ता बात दिया ने मुकर्रबखान ने 12000 की

सेना के साथ संगमेश्वर पर हमला कर दिया। मराठा योद्धा अचानक हुए दुश्मन के इस हमले पर अपनी तरफ से जवाबी हमला नहीं कर सके। 

मुगल सेना संभाजी महाराज को जीवित पकड़ने में कामयाब रही। संभाजी राजे और कवि कलश को औरंगजेब के पास पेश करने से पहले बहादुरगढ़ ले जाया गया था। तुलापुर में संभाजी महाराज और कवि कलश का जुलूस निकलवाया गया जहाँ औरंगज़ेब के आदेश पर उनके हाथों को झुनझुने से बांधकर ऊंठ पर उल्टा बांध कर शहर में घुमाया गया, रस्ते में लोगो ने उनपर थूका, पेशाब किया, पत्थर मारे, और कई मुग़ल सैनिकों ने अपने हथियारों की नोक उनकी खाल में घुसाई और घाव करे।

दिल्ली दरबार में संभाजी को अपने सामने देख डरते हुए औरंगजेब ने संभाजी महारज के आगे ३ शर्ते रखी कि संभाजी राजे अपना धर्म छोड़ इस्लाम कबूल करले या जो खज़ाना उनके पास है उससे मुघलो को देदे या मुग़ल सल्तनत के गुलाम बनके महाराष्ट्र पर राज करे अगर इनमे से कोई भी शर्त को वो माँ लेते है तो उनकी जान बख्श दी जाएगी। संभाजी राजे ने ये तीनों शर्त मानने से साफ इनकार कर दिया। 

जिसके बाद शुरू हुआ मुग़लों की हैवानियत का असली खेल 40 दिन तक औरंगजेब की कैद में संभाजी महाराज और उनके साथी कवी कलश पर भाऊत ही भयानक शारीरिक अत्याचार किये गए हर दिन उनके शरीर से एक अंग काट दिया जाता था, उनकी आँखों में गरम सलाखे डाल के आँखे फोड़ दी गयी, उनके बालों को हाथ से पकड़ कर उखाड़ दिया जाता था, भरे हुए घाव को फिरसे कुरेद कर उसमे नमक ओर मिर्ची डाल दी जाती थी, उनकी खयाल को जंबूरों से नोच कर उनकी बोटियाँ निकली जाती थी।

हर यातना के साथ उन्हें इस्लाम कबूल करने के लिए कहा जाता था रोज़ औरंगज़ेब इनके पास आके  3 में से कोई भी एक शर्त मानने की बात करता था जिसका जवाब संभाजी ना में ही देते थे इस तरह 40 दिन तक यातनाये देने के बाद 11 मार्च 1689 औरंगजेब ने अपनी हार माँ ली और उनकी हत्या करने से पहले औरंगजेब ने उन्हे कहा की अगर मेरा एक भी बेटा तेरे जैसा होता तो पूरे हिंदुस्तान पर मुग़लया सल्तनत का परचम लहर रहा होता ये बोलते ही उसने अपनी कटार संभाजी के दिल मे घुसा दी जिससे फाल्गुन अमावस्या के दिन संभाजी महाराज की मृत्यु हो गई। 

 

मौत के बाद भी औरंगज़ेब मराठों के गुस्से से इतना दर हुआ था की उसने संभाजी राजे और कवि कलश की लाश मराठों को न सौंपते हुए लाशों के टुकड़े करवा के यमुना में फिकवा दिए, फिर भी वो मराठो के गुस्से से बच न सका, अपने छत्रपती के साथ हुए इसस व्यवहार से मराठे इसस कदर गुस्सा थे की उन्होंने औरंगजेब को कभी देहली वापिस नहीं जाने दिया ओर उसकी मौत एक लावारिस की तरह दक्कन मे ही हुई 

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